मध्य प्रदेश के विदिशा में 20 साल के एक युवक ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी मां ने उसके लिए चिकन नहीं बनाया। युवक ने खुद चिकन खरीदा था, पर जब मां ने पकाने से मना कर दिया, तो उसके बड़े भाई ने उसे पकाया और खिलाया भी, तब भी वह इस बात से बेहद आहत हुआ था कि “मां ने उसके लिए खाना नहीं बनाया”।
कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में, सातवीं कक्षा के 13 वर्षीय छात्र पर तीन पैकेट चिप्स चोरी करने का आरोप लगा। उसे सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगनी पड़ी। उसने अपनी मां के नाम सुसाइड नोट में लिखा, “माँ, मैंने चिप्स नहीं चुराए।”
गडचिरोली, महाराष्ट्र में, 10 वर्षीय एक बच्ची ने खुदकुशी कर ली जब उसकी बड़ी बहन ने उसे उसका पसंदीदा टीवी चैनल देखने नहीं दिया।
ये घटनाएं सुनने में छोटी लग सकती हैं — चिकन, चिप्स, या टीवी चैनल। लेकिन हमें समझना होगा कि बच्चों और किशोरों की भावनाएं उतनी ही गहरी होती हैं जितनी किसी वयस्क की, बल्कि कहीं ज़्यादा तीव्र।

यह सिर्फ उस एक घटना की बात नहीं होती
जब कोई बच्चा या किशोर ऐसा कोई कठोर कदम उठाता है, तो यह सिर्फ उस एक क्षण की प्रतिक्रिया नहीं होती। उस एक घटना के पीछे कई अनकही भावनाएं होती हैं — अस्वीकृति, शर्मिंदगी, अकेलापन, बेबसी।
वो जो घटना हमें मामूली लगती है, वही उनके लिए दुनिया का सबसे बड़ा दर्द बन जाती है।
बच्चों का मस्तिष्क कैसे काम करता है?
बच्चे और किशोर मानसिक और भावनात्मक रूप से विकास की प्रक्रिया में होते हैं। उनके मस्तिष्क का फ्रंटल लोब — जो सोचने, समझने, निर्णय लेने और भावनाओं को नियंत्रित करने में मदद करता है — अभी पूरी तरह विकसित नहीं होता।
इसका मतलब ये है कि:
- वे भावनाओं को बहुत तीव्रता से महसूस करते हैं।
- वे भविष्य के परिणामों की कल्पना नहीं कर पाते।
- वे अक्सर तात्कालिक आवेगों में निर्णय ले लेते हैं।
- उन्हें यह समझ नहीं आता कि कोई परिस्थिति स्थायी नहीं है।
“कभी-कभी बच्चा इतनी गहरी तकलीफ़ में होता है कि उसे न तो ठहरने का समय मिलता है और न ही अपने दर्द को समझने का मौका। उस पल में जो निर्णय वह लेता है, वह उसे उस तकलीफ़ से निकलने का एकमात्र रास्ता लगता है — भले ही वह फैसला एक टेम्पररी फीलिंगस के लिए पर्मनन्ट फीलिंगस लेकर आए।”
बच्चा किसी मानसिक परेशानी से जूझ रहा है इसके क्या संकेत दिखाई दे सकते हैं?
हर बच्चा अपनी भावनाएं शब्दों में नहीं कहता, लेकिन उनका व्यवहार बहुत कुछ कहता है:
- अचानक चुप हो जाना या अकेले रहना
- गुस्सा, चिड़चिड़ापन या उदासी में रहना
- नींद और भूख में बदलाव
- पढ़ाई में मन न लगना
- बार-बार मरने या “गायब हो जाने” की बातें करना
- यह कहना कि “मैं बोझ हूँ” या “कोई मुझे समझता नहीं”
और कई बार कोई स्पष्ट संकेत नहीं होता — फिर भी बच्चा अंदर ही अंदर टूट रहा होता है।
हम वयस्क क्या कर सकते हैं?
- भावनाओं को समझें, तुच्छ न समझें
जो बात आपको छोटी लगे, वह उनके लिए बहुत बड़ी हो सकती है। भावनाओं की तुलना मत करें — बस उन्हें स्वीकार करें।
- डांटने से पहले बात करें
अगर बच्चा कोई गलती करता है, तो उसे शर्मिंदा करने के बजाय यह पूछें: “तुम्हें कैसा लग रहा है?” या “ऐसा क्यों हुआ, चलो मिलकर समझते हैं।”
- सार्वजनिक रूप से अपमान न करें
बच्चों को अनुशासन की ज़रूरत है, पर अपमान की नहीं। सार्वजनिक शर्मिंदगी लंबे समय तक मानसिक आघात दे सकती है।
- संवाद का सुरक्षित वातावरण बनाएं
घर और स्कूल ऐसे स्थान हों जहाँ बच्चा अपनी भावनाएं बेझिझक ज़ाहिर कर सके — चाहे वह डर हो, गुस्सा हो या दुख।
- स्वयं भावनात्मक ईमानदारी दिखाएं
जब आप अपनी भावनाओं को स्वस्थ रूप से व्यक्त करते हैं, तो बच्चा भी यही सीखता है कि दुख, गलती या डर बताने में शर्म नहीं है।
- मनोवैज्ञानिक सहायता लें
काउंसलिंग को अब भी कई लोग कमजोरी मानते हैं, जबकि यह वास्तव में सबसे समझदारी भरा कदम है। मनोवैज्ञानिक सिर्फ समस्या नहीं सुनते, समाधान भी सिखाते हैं।
एक साथ चलें, सुनें और थामे रहें
इन तीन बच्चों की कहानियों में एक बात सामान्य है — उन्होंने खुद को अकेला महसूस किया।
और यही वह मोड़ है जहाँ हम सब — माता-पिता, शिक्षक, रिश्तेदार और समाज — असफल हुए।
बच्चों के मन को हम जितनी जल्दी समझना शुरू करेंगे, उतनी जल्दी हम उन्हें वह सहारा दे पाएंगे जिसकी उन्हें ज़रूरत है।
एक भी बच्चा यह महसूस न करे कि वह अनसुना है। कोई गलती इतनी बड़ी नहीं होती कि उसे सुधार न सकें, और कोई दुख इतना भारी नहीं कि उसे साझा न किया जा सके।
हमारी एक समझ, एक बातचीत, एक बार गले लगाना — किसी की ज़िंदगी बचा सकता है।